उपन्यास >> लेकिन दरवाजा लेकिन दरवाजापंकज बिष्ट
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‘लेकिन दरवाज़ा’ में समकालीनता को चालू भाषा-शैली में चित्रित किया गया है
‘‘...महानगरीय कथा-कृतियों में प्रायः समकालीनता को ही उजागर किया जाता है; किन्तु ‘लेकिन दरवाज़ा’ में समकालीनता को चालू भाषा-शैली में चित्रित किया गया है। याद नहीं पड़ता कि हिन्दी की किसी कथा-कृति में इस तरह की चालू भाषा-शैली में महानगरीय समकालीनता को इतने ताजेपन के साथ पहले प्रस्तुत किया गया हो...’’ - आलोचना
रचनाधर्मिता के नाम पर जोड़-तोड़ के दमघोंटू व कल्टीवेटेड माहौल पर आधारित बिष्ट का यह उपन्यास एक तरफ साहित्यिक जीवन की परतों को उधेड़ता है तो दूसरी ओर आभिजात्य वर्ग की पतनशील रूमानी मानसिकता को दर्शाता है।...’’ - अमर उजाला
‘लेकिन दरवाज़ा’ को ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ से भी ज्यादा सफलता मिली। इसका एक मुख्य कारण यह हो सकता है कि मनोहर श्याम जोशी ने जहाँ विलक्षणता, मामूली-मामूली बातों को गैरमामूली ढंग से पेश करने में दिखाई, वहाँ ‘लेकिन दरवाज़ा’ में लेखक ने गैरमामूली ढंग से कहा।’’ - नवभारत टाइम्स
‘‘दरअसल समकालीन साहित्यिक दुनिया के वास्तविक सन्दर्भों को विषय के रूप में उठाना एक जोखिम-भरा काम है। लेकिन पंकज बिष्ट की यह खूबी रही है कि वे इन सन्दर्भों का ब्यौरा मात्र पेश करने के बजाय उन्हें सामाजिक परिप्रेक्ष्य की सापेक्षता में उभारते हैं।...’’ - साक्षात्कार
‘‘लेखक दूसरे-दूसरे वर्गों के बारे में तो खूब लिखते हैं, मगर उनके खुद के बारे में कम लिखा जाता है।...यह उत्सुकता का विषय है कि सबके बारे में लिखनेवाले लेखक का अपना सांसारिक परिवेश कैसा होता है या उसकी जीवनगत परिस्थितियाँ, उसके आदर्श, उसका परिवार, उसकी रुचियाँ, उसके संघर्ष किस किस्म के होते हैं? पंकज बिष्ट ने इसी कथा-भूमि को उठाया है - महानगर दिल्ली के लेखकों के जीवन को।’’ - नई दुनिया
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